Saturday 2 July 2016



खूँ हो गया सफ़ेद कोई जैसे मर गया
रिश्तों से रंग प्यार का ऐसे उतर गया

कोई कमी न थी न कोई चाह थी मगर
बदला उधर जो दौर इधर घर बिखर गया

कोई न साथ चल सका दिन चार भी यहाँ
कोई इधर चला गया कोई उधर गया

महबूब भी मिला था मुझे एक फ्रिकमंद
तनहा जमीं पे छोड़ वही हमसफ़र गया  

यादों के कारवां ही फ़कत साथ रह गए
मुझसे हकीकतों का तो मन ही भर गया

है जिंदगी उदास मेरी भूख मिट गई
खुशियाँ न पा सका न ही गम छोड़कर गया

आँखों में रह गई नमी गम जब्त कर लिए
नदिया ठहर गई एक दरिया ठहर गया.

~ अशोक कुमार रक्ताले.


हमने यहीं पर ये चलन देखा

हर गैर में इक अपनापन देखा



देखी नुमाइश जिस्म की फिरभी

जूतों से नर का आकलन देखा



हर फूल ने खुश्बू गजब पायी

महका हुआ सारा  चमन देखा



लिक्खा मनाही था मगर हमने

हर फूल छूकर आदतन देखा



उस दम ठगे से रह गए हम यूँ  

फूलों को भँवरों में मगन देखा



होती है रुपियों से खनक कैसे

हमने भी रुक-रुक के वो फन देखा



रोशन चिरागों के तले देखे  

गलता हुआ बेबस बदन देखा 

~ अशोक कुमार रक्ताले.